Author: अमिताभ भूषण"अनहद"
•9:52 am

वर्चुअल स्पेस में क्रांति कुलांचे भरनेवाली जमात को इनदिनों एक खास किस्म का क्रन्तिकारी मिल गया है ..एक यैसा क्रन्तिकारी जो गाँधी और क्षत्रपति शिवजी दोनों का गुण अपने अन्दर होने का दावा करता है ... इस क्रांति का नाम किशन बाबूराव हजारे उर्फ़ अन्ना हजारे है ...फसबूकिया स्वप्नदर्शी विचारवान क्रांति नायक अपने इस महानायक के जनलोकपाल की लडाई बड़े आक्रामक तरीके से वर्चुअल स्पेस में लड़ रहे है ..य़े अलग बात है इनमे से अधिकांश लोग लोकपाल क्या है ,जन लोकपाल क्या नहीं जानते है ..लेकिन अन्ना हजारे जी के वर्चुअल स्पेस में फैले य़े सिपाही अन्ना के खिलाफ बोलनेवालो पर फतवा जारी करने में कोई कोताही नहीं बरतते है ...पिछले दिनों फसबूक पर अपनी असहमतियो को जाहिर करने की मेरी कोशिश ने मुझे जाहिल .देशद्रोही ,पागल और पता नहीं क्या क्या साबित कर दिया ..

अन्ना के लिए आस्था का उन्माद देख और समझ ही रहा था तब तक ,सरकार के गैर लोकतांत्रिक खेल शुरू हो गए ..सरकारी तानाशाही के खिलाफ जब वर्चुअल स्पेस से ज़मीनी स्तर तक मुखालफत शुरू की तो फिर दोस्तों ने कहा की लहर देख कर आप बहने लगे है ...जब मैंने फिर से दुहराया की मेरी अन्ना और जन लोकपाल से जुडी असहमतियां आज भी वैसे ही है ..तो इस बार किसी ने भी सुनना लाज़मी नहीं समझा ....मुझे बड़ा अजीब लगता है की भारत जैसे देश में जहा असहमतियो के सम्मान की परम्परा रही है ,वहां के लोग असहमतियो का आदर करना भूल गए है ...जिस देश में चाणक्य और चावार्क को एक जैसे आदर के साथ लोग सुनते और समझते आये है , वहां के लोग अन्नावादी आस्था के उन्माद में असहमतियो के मामले में इतने संवेदन शून्य हो गए.है.. जन लोकपाल की खामियों पर बात करने का अर्थ क्या वास्तव में भ्रष्टाचार विरोधी अभियान की मुखालफत है ? क्या यह कहना अपराध है की जन लोकपाल भ्रष्टाचार का संपूरण समाधान नहीं है ?क्या इस बात पर बहस नहीं होनी चाहिए की जिस जन लोकपाल की जद में पटवारी से लेकर प्रधानमंत्री तक को रखा गया है ..वहां गैर सरकारी संस्थाओ , मीडिया और वकीलों को उसके दायरे से बाहर क्यों रखा गया है ?क्या केवल इसलिए की कथित सीविल सोसायटी के सभी प्रतिनिधि गैर सरकारी संस्थाओ के संचालक है ,या इसलिए की मीडिया की बात करने पर जन लोकपाल के अभियान को सर आँखों पर रख कर अपने सरे कुकर्मो को धोने की जुगत में जुटी मीडिया जन लोकपाल के दायरे में आने की बात सुनकर बिदक जाएगी .वकीलों के भ्रष्टाचार पर क्या केवल इस लिए बात नहीं होनी चाहिए ,क्योकि अन्ना हजारे की टीम में वकील पिता पुत्र भी है .क्या उस जन लोकपाल का विरोध नहीं होना चाहिए ..जो पूर्वाग्रहों के कारण केवल और केवल पूरे के पूरे सरकारी तंत्र को भ्रष्ट मानती है ? क्या भ्रष्टाचार केवल सरकारी मुलाज़िमो और चुने हुए जनप्रतिनिधियों के कारन ही है ...क्या यही लोग केवल भ्रष्ट है ..? क्या इस कुतर्क का विरोध नहीं करना चाहिए की अभी सरकारी सेवको और जनप्रतिनिधियों का भ्रष्टाचार ख़तम कर लेते है ..जन लोकपाल लाकर ,,बाकी लोगो और क्षेत्रो के लिए अलग से कानून बनायेगे ..? क्या जन लोकपाल के कोरामिन (वो सुई जो मरते हुए मानव को कुछ समय के लिए बचाने की कोशिश में दी जाती है ) से सड़े हुए लोकतंत्र को जिन्दा करने के बजाये ,नविन लोकतंत्र के स्थापना की बात करना गुनाह है ?

क्या इस प्रवृति का विरोध नहीं होना चाहिए की दस लोग अपने आप एक कानून ड्राफ्ट करते है खुद से एक सीविल सोसायटी बनाते है और चुनी निर्वाचित सदस्यों वाली संसद से कहते है आप हमारा ड्राफ्ट जैसा है वैसा ही पास करो नहीं तो हम अनशन करेंगे? सरकारकी तानाशाही का विरोध तो ठीक है पर अन्नाशाही का विरोध गलत है ,क्या इस दौहोरे मानदंड का विरोध गलत है ? २१२ करोड़ की आबादी वाले देश में बमुश्किल ५ लाख लोग प्रत्यक्ष तौर से और एक करोड़ से भी कम लोग एसएमएस के जरिये ..कुल आबादी के एक फीसदी से भी कम समर्थन को जनांदोलन कहना क्या ये गलत नहीं है ? और क्या इन सभी विरोधाभास और खामियों पर असहमति जाहिर करना वाकई राष्ट्रवाद का प्रश्न है ..........

Author: अमिताभ भूषण"अनहद"
•9:13 am

'जंगल अनहद निकली थी सांप के भय से, गाँव-शहर में आई तो आदमी ने डंस लिया...'

यह दशा है, व्यथा है, गौमाता, गौवंश की. उस वंश परंपरा की, जिसका सीधा सम्बन्ध भारत के स्वास्थ्य, समृद्धि, स्वावलंबन और जीवन से रहा है. सहस्त्राब्दियों से भारतीय समाज में पूज्य रहे, पालक-पोषक रहे गौवंश का संरक्षण व संवर्धन समय की दरकार है. तकनीक तथा मशीन के अंध प्रयोग, नक़ल की होड़ में जुटे समाज को गौवंश के निरादर का गंभीर परिणाम भुगतना होगा. गाँव, खेत, किसान की पहचान से गौवंश की दूरी भविष्य के लिए खतरनाक संकेत हैं.

अभी कुछ वर्ष पहले तक ग्राम्य जीवन में गाय, बैल संपन्नता के प्रतीक थे. घर के बाहर खूंटे से बंधी गायों, बैलों की जोड़ी गृहस्वामी के प्रतिष्ठा का आधार होती थी. गाँव का गरीब से गरीब आदमी गौसेवा, गौपालन के लिए लालायित होता था. सामर्थ्यवान व्यक्ति से गाय अथवा बछडा और बैल सशर्त लेकर गौवंश से अपने दरवाजे की शोभा बढाता था. समय के साथ बदलते समृद्धि, उन्नति के मापदंड ने दरवाजे पर गडे खूंटे और हौदी(नादी) को सूना कर दिया है. ट्रैक्टर और थ्रेशर सरीखे मशीन अब ग्राम्य जीवन की संपन्नता के नए प्रतीक हैं. सोयाबीन के दूध में प्रोटीन ढूँढने वाला समाज, निरोग काया के लिए अब भी गाय के दूध को अमृत मानता है. गोमूत्र के औषधीय उपयोग और गोबर के धार्मिक, खेतिहर प्रयोग आज भी भारत में निर्विकल्प हैं. बावजूद, देश में गौवंश के प्रति विमुखता अपने चरम पर है.

दो बैलों की कहानी तथा लाला दाउदयाल का गऊप्रेम अब इतिहास कथा होने को है. क्या हम नयी पीढी को दो बैलों की कहानी के स्थान पर 'दो ट्रैक्टर की कहानी' पढाना चाहते हैं? या लाला दाउदयाल के गऊप्रेम की जगह किसी सभ्य भारतीय का कुत्ता-बिल्ली प्रेम आदर्श के तौर पर पढाना चाहते हैं?

शायद इन तमाम प्रश्नों को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने गंभीरता से सोचा है. रचनात्मक कार्यों के प्रति अपनी सांगठनिक प्रतिबद्धता को, संघ अपने गो संरक्षण-संवर्द्धन अभियान के जरिये दुहराने को तैयार है. २९ जून २००९ को भोपाल के शारदा विहार परिसर में संघ ने देश भर से आये डेढ़ सौ से अधिक कार्यकर्ताओं के बीच इस अभियान को लेकर विमर्श किया. तीन दिन तक चले विमर्श से 'विश्व मंगल गो-ग्राम यात्रा' के सम्पूर्ण स्वरुप का निर्धारण हुआ. अपने स्थापना दिवस अर्थात विजयादशमी के दिन 'विश्व मंगल गो-ग्राम यात्रा' का शंखनाद कुरुक्षेत्र की भूमि से करने का संघ ने निश्चय किया है. एक सौ आठ दिनों तक चलने वाली इस यात्रा में २०००० किलोमीटर की दूरी तय की जायेगी.

माना जाता है, कि अयोध्या आन्दोलन के बाद एक बार फिर 'विश्व मंगल गो-ग्राम यात्रा' के जरिये संघ समाज में अपने पकड़ और प्रभाव का परिचय देगा. चार प्रमुख रथों से निकलने वाली इस यात्रा का उद्देश्य गौवंश के प्रति समाज में कर्तव्यबोध उत्पन्न करना तथा गाँव, पर्यावरण, संस्कृति के लिए चेतना जागृत करनाहै.

संघ के सारथी इस यात्रा में समाज के सभी पंथ, धर्मं, जाति को जोड़ने का प्रयास करेंगे. इस यात्रा का परिणाम क्या होगा, ये तो आने वाला वक़्त ही बताएगा. फ़िलहाल इतना तय है कि गौवंश के रक्षार्थ निकलने वाली यह यात्रा संघ की ही नहीं, अपितु समय की भी यात्रा है.
अनहद
Author: अमिताभ भूषण"अनहद"
•5:16 am

भष्मासुर की पीढी के निर्माण व उस परंपरा के निर्वहन में जुटी 'भारत जलाऔ पार्टी इन दिनों गहरे संकट में है. हाल ही में चुनावी मोर्चे पर मिली पराजय के बाद से अवसादग्रस्त पार्टी, घरेलु मोर्चे पर घिर गयी है. चुनौती भी उसी भष्मासुर से है, जो कल तक भाजपा के प्रिय संकटमोचक थे. कथित अनुशासन और विचारधारा के नाम पर स्वजनों की बलि, भाजपा की पुरानी परंपरा है. यह पहली दफा नहीं है, जब परिवार के किसी निष्ठावान प्रभावशाली नेता ने अपने दल-कुल की फजीहत की हो. दल-उत्थान के लिए गोविन्दाचार्य, उमा भारती, कल्याण व बाघेला जैसे नेता समय-समय पर भाजपा को चुनौती देते रहे हैं. भष्मासुरी संस्कार ने अपने अपने आघातों से पार्टी की जो दशा की है, वो जगजाहिर हैं.

पैदाइश के बाद से अब तक के सबसे ख़राब दौर से गुजर रही भाजपा, जहाँ चिंतन के जरिये खडा होने की जुगत में जुटी है, वहीँ दूसरी तरफ अतीत के संकटमोचक, संकटकारक बन, चिंता बढा रहे हैं. भाजपा के पोल-खोल अभियान में जुटे भष्मासुर का आक्रोश बेजा नहीं है, भाजपा ने तीन दशक से लीक पर चल रहे सपूत को परम्परा निभाने का दंड दिया है.

घर-निकाला का सामना करने वाले, भाजपा के घोषित कपूत का रोष जायज है. भाजपा के इस नए कपूत ने अपनी नई किताब में पार्टी की परम्परा का ही तो निर्वहन किया है, फिर पुरस्कार की जगह तिरस्कार क्यों? अपने संस्थापक श्यामा प्रसाद मुखर्जी के आदर्श, दृष्टिकोण व बलिदान को तिरस्कृत करने वाली भाजपा, महापुरुषों का क्या खाक सम्मान करेगी? रामसेवकों की लाश पर लात रखकर सत्ता-सुख भोगने वाली पार्टी से शहादत के सम्मान की उम्मीद ही बेमानी है. 'गांधीवादी समाजवाद' से शुरू होकर, हिन्दू-राष्ट्रवाद, एकात्ममानववाद, राम-रोटी-मकान और सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के बाद 'भारत-उदय' कर चुकी भाजपा में वादाखिलाफी कूट-कूट कर भरी हुई है. हर बार चुनाव के बाद नारा और चेहरा बदलने वाली भाजपा की बुनियाद ही दोषपूर्ण है.

मोहम्मद अली जिन्ना को भारत विभाजन के दोष से मुक्त करती, व्यक्तिगत कुंठा, बौद्धिक क्षुद्रता, दलगत संस्कार पर आधारित किताब "जिन्ना: भारत विभाजन के आईने में" के जरिये जसवंत सिंह ने अपने साथियों के विचार को आधार दिया है. भाजपा में दृष्टिकोण की पुनर्व्याख्या की जिस परम्परा को भाजपा के जंग खाए लौह-पुरुष ने शुरू किया था, जसवंत सिंह ने बस उसे विस्तार दिया है.

कमाल तो यह है कि जिन्ना की मजार पर पुष्प चढाने वाले, भावावेग में ऐतिहासिक कसीदा पढने वाले भाजपा के रथी भी कपूत-निष्कासन को जायज मानते हैं. भारतीय राजनीति को इच्छाशक्ति का व्यावहारिक अर्थ बताने वाले लौह-पुरुष का अपमान और बैरिस्टर मो. अलीजिन्ना का गुणगान भाजपा की परंपरा का परिचय मात्र
है/
अनहद